संजय गाँधी का मारुती कार प्रोजेक्ट: एक ऐसी कार जो सड़क पर कभी चली ही नहीं
बालेन्दुशेखर मंगलमूर्ति
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जो इतिहास की दिशा बदल कर रख देती हैं. 23 जून 1980 ऐसे ही दिनों में एक था. अगर 23 जून 1980 को प्लेन दुर्घटना में संजय गाँधी की महज 33 साल की उम्र में असामयिक मौत नहीं होती, तो वे भारत के प्रधान मंत्री बन सकते थे. अगर वे भारत के प्रधानमंत्री बनते तो देश की दशो दिशा क्या होती, ये अकादमिक बहस का विषय है, पर उस जून की तपती हुई सुबह जब संजय गाँधी 1 सफ़दरजंग मार्ग से सफ़ेद कुरता पायजामा में सफदरजंग फ्लाइंग क्लब पहुंचे थे, तो वे नहीं जानते थे कि वे महज कुछ क्षणों में इतिहास के गर्त में समाने वाले हैं.
सुबह का समय था, और खतरों से खेलने वाले संजय सारे नियमों की धज्जी उड़ाते हुए ( हर समय की तरह) कुरता पायजामा और कोल्हापुरी चप्पल में क्लब के द्वारा नए ख़रीदे गए विमान को उड़ाने के लिए पहुंचे. राजीव हमेशा उन्हें टोका करते कि प्लेन उड़ाते समय अपनी सुरक्षा का ध्यान रखा करें, पर संजय ने इन बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया. कुछ ही पलों में प्लेन सफदरजंग एअरपोर्ट के ऊपर उड़ान भरने लगा. कई लोगों ने नॉटिस किया कि उस सुबह एक प्लेन बेहद खतरनाक ढंग से काफी नीची ऊंचाई पर गोते लगा रहा था. वे एक खतरे को महसूस कर रहे थे और इससे पहले वे कुछ और सोच पाते, अचानक प्लेन नियंत्रण खोकर बेहद तेज गति से जमीन से आ टकराया. पौने आठ बजे उस जून की सुबह, संजय गाँधी की मौत हो चुकी थी.

संजय गाँधी चले गए, इंदिरा गांधी बेहद अकेली हो गयीं, मेनका गाँधी के बुरे दिन शुरू हो गए, उस समय वरुण महज दो महीने के थे.
पर जाते जाते भी संजय ने विवादों की एक लम्बी श्रृखला अपने पीछे छोड़ी थी, जिसमे एक बेहद महत्वपूर्ण था मारुती कार प्रोजेक्ट. कई राजनीतिक जानकार यहाँ तक कहते हैं कि बढ़ते बढ़ते मारुती प्रोजेक्ट इतना बड़ा विवाद बन चुका था, कि इसे दबाने के लिए इंदिरा गाँधी को इमरजेंसी लगानी पड़ी.
क्या था ये मारुति प्रोजेक्ट और कैसे शुरू हुआ?
वैश्विक परिदृश्य में द्वितीय विश्व युद्द की विभीषिका से उबरने के बाद जापान ने अमेरिकी मदद के सहारे काफी तेज गति से आर्थिक प्रगति करनी शुरू की. जापान के कंस्यूमर गुड्स, इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक गुड्स, टीवी, आदि ने अमेरिकी बाज़ार को पाटना शुरू कर दिया. अमेरिकी वैज्ञानिकों का ध्यान रोजमर्रा की जरूरतों की चीजों पर नहीं थे और उनका बेस्ट रिसर्च स्पेस, एटॉमिक एनर्जी के लिए था. ऐसे में जापान के उत्पाद अमेरिकी बाज़ारों में छा गए. एक और उत्पाद के जरिये जापान न सिर्फ अमेरिकी, यूरोप बल्कि विश्व बाजार पर छा गया, वो थी जापान की हौंडा, टोयोटा, मित्सुबिशी कंपनियों के द्वारा बनाई गयीं छोटी छोटी कारें. अमेरिकी लक्ज़री भारी भड़कम कारों की तुलना में ये कारें कम जगह लेती थीं, एकल इस्तेमाल के लिए बेहतरीन थीं और फिर माइलेज भी इनका बेहतरीन था.
भारत में भी छोटी कारों को लेकर बहस छिड़ी हुई थी:
भारत भी छोटी कारों पर दुनिया भर में चल रही बहस से अछूता नहीं था. तमाम तरह के मुद्दे उठ रहे थे: इसका उत्पादन प्राइवेट सेक्टर करे या फिर पब्लिक सेक्टर? फॉरेन कोलैबोरेशन हो या पूरी तरह देशी टेक्नोलॉजी पर आधारित हो? ऐसे में भारत सरकार ने 1959 में एल के झा की अध्यक्षता में देश में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री पर एक रिपोर्ट पेश करने के लिए एक समिति बना दी. अपनी रिपोर्ट में कमिटी ने राय दी कि देश में छोटी करों का बाज़ार है. कमिटी के अनुसार वार्षिक मांग देश में 50,000 कार है और इसे न्यूनतम 6,000 रूपये में बनाया जा सकता है.
1960 में भारत सरकार ने एक दूसरी कमिटी, रेलवे बोर्ड के सेवानिवृत चेयरमैन जी पाण्डेय की अध्यक्षता में छोटी कारों के आईडिया के तकनिकी पहलुओं पर राय लेने के लिए गठित की. इस बीच देश में बहस जारी थी. प्लानिंग कमीशन के डिप्टी चेयरमैन वी के कृष्णामचारी ने बहस छेड़ दी कि देश को छोटी कारें नहीं, बल्कि साइकिल, बस, ट्रक और स्कूटर चाहिए. दूसरी तरफ, स्टील और भारी उद्योगों के मंत्री सी सुब्रमण्यम ने कहा देश की प्राथमिकता पब्लिक ट्रांसपोर्ट है, न कि प्राइवेट व्हीकल्स.
1968 तक ये तय हो चुका था कि छोटी कारों का उत्पादन प्राइवेट सेक्टर में ही होगा. सरकार ने इसके लिए प्राइवेट सेक्टर से निविदाएँ मंग्वायीं, इस निर्देश के साथ कि झा समिति के सुझाव ही गाइड लाइन का काम करेंगे. कुछ 14 प्रपोजल आये, जिसमे कई अन्तार्रस्थ्रिया कम्पनिया थीं – रीनॉल्ट, मोरिस, माजदा, टोयोटा, वोल्क्स्वगन, आदि. रीनॉल्ट ने 11,900 प्राइस कोट किया था, वही टोयोटा ने 6,700 रूपये का प्राइस कोट किया.
13 नवम्बर 1968 को संसद में उद्योग राज्य मंत्री रघुनाथ रेड्डी ने घोषणा की कि सारे प्रोपोसल्स में सबसे बेहतरीन प्रपोजल संजय गांधी का पाया गया है. उनके प्रपोजल में कार की कीमत 6000 कोट की गयी थी; 53 मील प्रति घंटे की अधिकतम रफ़्तार पकड़ सकती थी और एक गैलन में 56 मील जा सकती थी.
अंतर्राष्ट्रीय कार कंपनियों को नज़रंदाज़ करते हुए संजय को कॉन्ट्रैक्ट देने से स्कैंडल शुरू हो गया:
जैसी की उम्मीद थी, वही हुआ. अंतर्राष्ट्रीय कार कंपनियों को नज़रंदाज़ करते हुए संजय को कॉन्ट्रैक्ट देने से स्कैंडल शुरू हो गया. जॉर्ज फर्नान्दिज़ ने निम्नतम स्तर का भाई भतीजावाद का आरोप लगाया, मधु लिमये ने इसे नंगा भ्रष्टाचार कहा वही वाजपयी ने इसे करप्शन अनलिमिटेड की संज्ञा डी. उस समय संजय गाँधी की शिक्षा महज अन्तर पास थी जो दो साल रोल्स रोयेस के प्लांट में ट्रेनिंग लेकर आये थे तीन साल का कोर्स था जिसे उन्होंने पूरा नहीं किया था और दो साल में ही भारत वापस लौट आये थे.
31 नवम्बर 1970 को भारत सरकार ने संजय गाँधी को साल में 50,000 करें उत्पादन करने का सहमती पत्र थमा दिया. विवाद और बढ़ गया जब 1970-71 के इनकम टैक्स रिटर्न में संजय गांधी का इनकम 722 रूपये दिखाया गया था. सालाना 722 रूपये कमाने वाला व्यक्ति, जिसके पास कोई टेक्निकल जानकारी नहीं थी, फाइनेंस नहीं था, भला कैसे देश भर की छोटी कार की जरुरत ( कुल 50,000) पूरा करता? विपक्ष सुलग रहा था.
बंशीलाल की भूमिका:
1971 के मध्य में एक कंपनी लांच की गयी, मारुती लिमिटेड, जिसके मैनेजिंग डायरेक्टर संजय गांधी बने, 4,000 रूपये प्रति महीने की सैलरी, एवं अन्य सुविधाओं के साथ. इस पब्लिक लिमिटेड कंपनी के तीन अन्य डायरेक्टर थे: रौनक सिंह, वी आर मोहन, विद्या भूषण. ए चिदंबरम ( ऑटोमोबाइल प्रोडक्ट्स ऑफ़ इंडिया के) इसके पहले चेयरमैन बने. जहाँ बाकी डायरेक्टर्स ने कंपनी में महत्वपूर्ण निवेश किये, वही संजय गांधी ने नियमों की एक बार फिर धज्जी उड़ाते हुए महज 10 शेयर 10 रूपये की दर से ख़रीदे.
अब कार बनाने के लिए जमीन चाहिए थी. अब इसमें हरियाणा के मुख्यमंत्री बंशीलाल की भूमिका सामने आई. बंशीलाल ने दिल्ली से सटे गुडगाँव में हाईवे से लगी 296.7 एकड़ जमीन संजय गाँधी को महज 36 लाख रूपये में- 11,776.42 रूपये प्रति एकड़ की दर से दिलवा दिया. लोगों को पुलिस की लाठी के सहारे जमीन से बेदखल कर दिया गया. कोर्ट में केस लंबा चला पर बात नहीं बनी. लोगों को कई साल बाद 1975 में अपनी जमीन के बदले मुआवजा मिला, जबकि उस समय अगल बगल की जमीनें चौगुने रेट पर बिक रही थीं.
कंपनी में पैसे लगाने वाले लोग संदेहास्पद चरित्र के थे:
मारुती लिमिटेड 2.5 करोड़ रूपये के authorised capital के साथ शुरू की गयी. जून 1972 तक यह बढ़कर10 करोड़ हो गया. पहले साल शेयर बिक्री से25 लाख, दुसरे साल 68 लाख और तीसरे साल 85 लाख जुटाए गए. सितम्बर 1974 तक कम्पनी का total paid up capital 1.8 करोड़ हो गया. 52 शेयर धारक ऐसे थे, जिन्होंने 1 लाख से ऊपर का निवेश किया था. इनके अलावा छोटे छोटे और माध्यम निवेशक थे. कई निवेशक ऐसे थे, जो संदेहास्पद चरित्र के थे, कईयों पर इनकम टैक्स कम देने के मामले चल रहे थे, कई उम्मीद कर रहे थे कि कंपनी में निवेश करने पर सरकार उनपर चल रही क़ानूनी कार्यवाहियों में ढील देगी. इसके अलावा डीलरशिप के माध्यम से पूंजी जुताई गयी. 1972 के मध्य में संजय गांधी ने 72 डीलरों की नियुक्ति की इस वायदे के साथ कि 6 महीने के अन्दर कार की डिलीवरी शुरू हो जायेगी.
संजय गांधी दूसरी कार कंपनियों के काम को समझने के लिए विदेश दौरे पर निकल गए. इस टूर में वे वेस्ट जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, चेकोस्लोवाकिया गए. अगले चार सालों तक वे कार कम्पनी में व्यस्त रहे. पर समस्या ये थी कि कंपनी से जुड़े हर काम को संजय गाँधी अकेले ही तय कर रहे थे. ऐसे में समय निकलता जा रहा था पर कार तो कार कार कि पूँछ भी मार्किट में नहीं नज़र आ रही थी.
कच्चे माल की कीमत बढ़ रही थी, ऐसे में कार कि कीमत को एक बार फिर से फिक्स किया गया. अब नया प्राइस था 11,300 रूपये. इसके अलावा जो पूंजी जुटाई गयी थी, वो इतने बड़े स्केल पर प्रोडक्शन के लिए नाकाफी था. ऐसे में बैंकों पर दवाब बढ़ रहा था कि वे येन केन प्रकारने इस प्रोजेक्ट को फण्ड करें. विपक्षी सांसदों ने ये मुद्दा उठाया कि कैसे औद्योगिक वित्त निगम ने साल का सबसे बड़ा लोन संजय गांधी को दे दिया. दो बैंकों सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, और पंजाब नेशनल बैंक ने बिना किसी कोलैटरल के घटे हुए ब्याज दर पर बड़े बड़े लोन सैंक्शन किया. कई बैंक अधिकारी जो दबाब में आने को तैयार नहीं थे, उनकी छुट्टी कर दी गयी. जिसमे सेंट्रल बैंक के चेयरमैन, रिज़र्व बैंक के गवर्नर एस जगन्नाथन जैसे वरिष्ट लोग थे.
इस बीच जो ढांचा तैयार हो रहा था, किसी में इंधन के लीकेज की समस्या थी, तो कोई तिन जैसा कमजोर था. 1972 के वर्ल्ड फेयर में हरियाणा पैविलियन में कार का प्रोटोटाइप दिखाया गया, जो एकदम कमजोर टिन का लग रहा था. अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस ने इसका हैडिंग लगाया: TIN(Y) CAR.
पी एन हक्सर का सुझाव :
ऐसे में इंदिरा गाँधी के बुद्धिमान सलाहकार ने इंदिरा गाँधी को सलाह दी कि इस कार की टेस्टिंग अहम्दाबाद VRDE में करवा ली जाए. हक्सर की सोच थी कि कार टेस्टिंग में सफल नहीं हो पाएगी और फिर इस प्रोजेक्ट को रोक दिया जाएगा. और ऐसे में इंदिरा गाँधी पर विपक्ष के हमले रुक जायेंगे या कम हो जायेंगे. पर भ्रष्टाचार का ऐसा जलवा था कि जल्दीबाजी में विदेशी इंजन को चोरी चोरी मंगवा कर ( हालाँकि पुरे प्रोजेक्ट को 100 फीसदी देशी होना था) बॉडी में लगाया गया और टेस्ट पास करवाया गया.
समय बढ़ता जा रहा था. जो कार मार्किट में 1973 के पूर्वार्ध में आने वाली थी वो 1974, 1975 और 1976 में भी नहीं आई. अभी तक काम ही चल रहा था. कहने की जरुरत नहीं कि डिस्ट्रीब्यूटर दिवालिया हो रहे थे पर कौन मुंह खोले !!
कुछ विदेशी पत्रकारों ने गुडगाँव में कार प्लांट के दौरे पर गए और उन्होंने काफी नेगेटिव रिपोर्ट लिखी.
1974 तक आते आते स्थिति ख़राब हो गयी थी. बैंकों से काफी पैसा उठा लिया गया था और प्रोडक्शन हो नही रहा था. इसी बीच 1974 में मारुती लिमिटेड कंपनी रोड रोलर बनने और बेचने के धंधे में चली गयी. इतना ही नहीं, संजय गाँधी ने भी प्रोजेक्ट से उत्साह खोना शुरू कर दिया. और जो राशन के सीमेंट और लोहा बेचना शुरू कर दिया.
मारुती से जुड़ा एक और स्कैंडल सामने आना बाकी थी:
संजय गांधी ने मारुती लिमिटेड कंपनी लांच करने से पहले एक एक टेक्निकल कंपनी लांच की. मारुती टेक्निकल सर्विसेज. इसका पेड अप कैपिटल 2.15 लाख था जिसमे संजय गांधी ने अकेले 1.25 लाख का निवेश किया था. गाँधी परिवार का कुल निवेश 99 फीसदी था. इसकी डायरेक्टर सोनिया गांधी को बनाया गया अच्छी खासी सैलरी के साथ. इसका काम मारुती लिमिटेड को कंसल्टेंसी देना था. 20 साल का अग्रीमेंट दोनों कमानियों के बीच किया गया जिसके तहत हर साल की बिक्री से हुए शुद्ध मुनाफे का 2 फीसदी मारुति टेक्निकल सर्विस को मिलना था. इस टाई अप में मारुती लिमिटेड ने मारुती टेक्निकल सर्विसेज को 5 लाख रूपये दिए. जून 1975 तक मारुती टेक्निकल सर्विस को मारुती लिमिटेड से 10 लाख रूपये मिल चुके थे और अब एक और नयी अनुषंगिक कंपनी मारुती हैवी व्हीकल्स लिमिटेड फ्लोट की गयी. इसका पेड अप कैपिटल 15 लाख था और 59 फीसदी शेयर मारुती टेक्निकल सर्विस के पास रखा गया. मारुती हैवी व्हीकल्स ( जो रोड रोलर बेचती) और मारुती टेक्निकल सेरिवे के बीच 10 साल का अग्रीमेंट हुआ जिसके तहत रोड रोलर के बिक्री से होने वाले शुद्ध मुनाफे का 2 फीसदी टेक्निकल सर्विसेज को मिलना था.
मारुती हैवी व्हीकल्स पुराने रोड रोलर्स खरीद कर उसे रंग रोगन करके उसे काफी ऊँचे दामों में सरकारी विभागों को बेच दिया करती थी.
इस सारे मकडजाल पर रोक लगी जब 1977 में इंदिरा गाँधी लोकसभा चुनाव हार गयीं और फिर रातों रात सारे ऑर्डर्स कैंसिल कर दिए गए और फिर संजय गांधी पर जांच बिठा दी गयी.
लन्दन के अखबार सन्डे टाइम्स के अनुसार, ये पूरी सड़न मारुती से शुरू हुई और इतने सारे सवाल निकल कर आने लगे कि जवाब देना मुश्किल हो गया. ब्लिट्ज की भी यही राय थी कि मारुती स्कैंडल खुद इंदिरा गाँधी के करियर के लिए खतरनाक हो गया था और अंत में इससे बचने के लिए इमरजेंसी लगाने के अलावा कोई उपाय नहीं था. हालाँकि संजय गाँधी के बायोग्राफर विनोद मेहता इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते.
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