जॉर्ज फर्नांडिस:फायरब्रांड समाजवादी नेता,जिसने अपना व्यक्तिगत जीवन भीअपनी शर्तों पर जिया
जॉर्ज फर्नांडिस का देहांत हो गया 29 जनवरी 2019 को नयी दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में. देशवासियों को एक बार फिर इस फायरब्रांड सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन लीडर की याद ताजा हो आयी. पिछले कुछ वर्षों से पब्लिक मेमोरी में उनकी याद धुंधली हो गयी थी. लोगों को हलकी जानकारी मिलती रहती थी कि अल्जीमर डिजीज से ग्रसित हैं, यादाश्त खो बैठे हैं, उनके समर्थक आरोप लगाते थे कि समता पार्टी जदयू के नेताओं और साथियों ने उन्हें भुला दिया है.
2010 की बात है. आज से 9 साल पहले की. कन्नड़ लेखक जे बी मोरास ने बायोग्राफी जॉर्ज के हाथों में दी, किताब पर अपनी तस्वीर देखकर कमजोर और बीमार जॉर्ज के चेहरे पर हंसी आयी. पर जॉर्ज उस समय तक बीमारी की चपेट में आ चुके थे.
जॉर्ज अब बच्चे की तरह व्यवहार करने लगे हैं, लैला कबीर ने बताया था. लैला कबीर उनकी पत्नी थीं जो उनसे अलग जीवन बिता रही थीं, और पचीस साल बाद उनके जीवन में लौट आयी थीं. उनका दावा था वे बीमार जॉर्ज की देखभाल के लिए उनके जीवन में लौटी हैं. पर कई परेशानियां शुरू हो गयी थीं. एक निश्चित जीवन शैली में हलचल मच गयी थी. एक तरफ जॉर्ज के भाइयों ने लैला पर आरोप लगाया कि वे जॉर्ज से उन्हें मिलने नहीं दे रही हैं. दूसरी और, जॉर्ज के जीवन में पिछले 25 सालों से जीवन साथी के रूप में रह रहीं जया जेटली को जॉर्ज के सरकारी आवास से अपना सारा सामान, किताबें, पेंटिंग आदि समेट कर ले जाने का फरमान सुना दिया गया था.
कुछ लोगों का मानना था कि जॉर्ज को लेकर मुख्य विवाद 26 करोड़ की सम्पत्ति को लेकर था. आरोप थे कि लैला और उनके बेटे सुशांतो कबीर फर्नांडीज उर्फ़ सीन ने प्रॉपर्टी के पेपर्स पर जॉर्ज के अंगूठे के निशान जबरन ले लिए थे, हालाँकि लैला ने इन आरोपों से पुरजोर इंकार किया और ऐसा करने के पीछे जॉर्ज को उन्हें घेरकर रखने वाले तथाकथित मौका परस्त लोगों से बचाने की मंशा का देवा पेश किया.
लैला को जॉर्ज की बीमार हालत के बारे में 2007 में अपने बेटे के मार्फत पता चला, जब सीन अपने पिता से कनाडा में मिले थे. कबीर उन दिनों को याद करते हुए कहती हैं, ” बिमारी के बावजूद जॉर्ज मुझे जन्मदिन पर विश करने पंचशील पार्क में मेरे घर आये थे.” उन दिनों लैला दिल्ली में ही गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल चला रही थीं.
2009 का वर्ष था. जॉर्ज को उनकी ही पार्टी ने हेल्थ ग्राउंड पर मुजफ्फरपुर लोक सभा का टिकट देने से मना कर दिया. उनके लोगों ने उन्हें इंडिपेंडेंट कैंडिडेट के रूप में चुनाव लड़ने को राजी कर लिया. जॉर्ज चुनाव हार गए.
लैला और जॉर्ज ने शादी के महज 13 साल साथ बिताये थे. २२ जुलाई १९७१ का दिन था, जब दोनों ने शादी की थी. उस समय उन्हें मिले हुए महज ३ महीने हुए थे. दोनों की मुलाक़ात फ्लाइट में हुई थी जब कलकत्ता से दिल्ली लौट रहे थे. जॉर्ज उन दिनों संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे और लैला भी रेड क्रॉस में असिस्टेंट डायरेक्टर थीं और बांग्लादेशी शरणार्थियों की मदद में लगी हुई थीं. लैला प्रसिद्द विद्वान और नेता हुमायूं कबीर की बेटी थीं. हुमायूं कबीर देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आज़ाद के सेक्रेटरी के तौर पर भी काम कर चुके थे.
फ्लाइट के दौरान दोनों में दुनिया भर के विषयों पर बातचीत हुई- पॉलिटिक्स से लेकर लिटरेचर, म्यूजिक तक. दोनों पढ़े लिखे लोग थे. इस पहली मुलाक़ात के बाद मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। बहुत जल्द जॉर्ज ने लैला के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया। लैला ने कहा था: ‘I am a difficult person. Are you sure you want to marry me?’ जॉर्ज ने तुरंत हामी भर दी थी.
पर अभी शादी के महज 13 साल बीते थे कि लैला ने जॉर्ज की जिंदगी से निकल जाने का 1984 का साल था, और उस समय सीन की उम्र महज डेढ़ साल की थी. रिश्तों के दरार पहले ही आ चुकी थी. लैला उन दिनों को याद करती हैं, ” हम गोपालपुर, उड़ीसा में छुट्टियां मना रहे थे, तभी देश में इमरजेंसी लगा दिया गया. जॉर्ज तुरंत निकल गए ये कहते हुए कि देश में लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़नी होगी. फिर अगले 22 महीनों तक जॉर्ज की कोई खबर नहीं आयी.”
लैला अपने बेटे को लेकर यूएस चली गयीं अपने भाई के पास. इमरजेंसी ख़त्म होने के बाद वे इंडिया लौटीं। पर लैला के शब्दों में, “जॉर्ज बदल चुके थे. वे सत्ता और ताकत के शीर्ष पर थे.”
इस बीच गंगा में काफी पानी बह चुका था. कई बदलावों में एक बदलाव था जॉर्ज की जिंदगी में एक दूसरी महिला का प्रवेश, जया जेटली.
जॉर्ज और जया का रिश्ता अगले 26 सालों तक चला, पर जॉर्ज ने लैला को डाइवोर्स नहीं दिया. जॉर्ज और लैला एक दूसरे से अलग रहे, पर तलाकशुदा जोड़े नहीं बने. सीन आगे चलकर इन्वेस्टमेंट बैंकर बने और अपनी जापानी पत्नी के साथ अमेरिका में सेटल्ड हो गए. सीन ने प्रॉपर्टी विवाद के मुद्दे पर अपना पक्ष रखा: मेरे पिता के पास जितनी संपत्ति है, उतनी सम्पत्ति अभी मेरे पास है, और मुझे यकीन है कि जब मै उनकी उम्र में चला जाऊँगा, तो मेरे पास उनसे ज्यादा सम्पत्ति होगी.”
जॉर्ज चले थे पादरी बनने, बन गए ट्रेड यूनियन लीडर:
जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म 3 जून, 1930 को कर्नाटक के मंगलुरु में हुआ. मंगलुरु में पले-बढ़े फर्नांडिस जब 16 साल के हुए तो एक क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने की शिक्षा लेने भेजे गए लेकिन यहां उनका मन नहीं लगा. इसके बाद वह 1949 में महज 19 साल की उम्र में रोजगार की तलाश में बंबई चले आए. इस दौरान वह लगातार सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे. उन दिनों फर्नांडिस समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से प्रेरणा लिया करते थे.
1950 आते-आते वे टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए. बिखरे बाल, और पतले चेहरे वाले फर्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे. कुछ लोग तभी से उन्हें ‘अनथक विद्रोही’ (रिबेल विद्आउट ए पॉज़) कहने लगे थे.
भले ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग उस वक्त फर्नांडिस को बदमाश और तोड़-फोड़ करने वाला मानते हों पर बंबई के सैकड़ों-हजारों गरीबों के लिए वे एक हीरो थे, मसीहा थे.
50 और 60 के दशक में जॉर्ज फर्नांडिस ने कई मजदूर हड़तालों और आंदोलनों का नेतृत्व किया, लेकिन उन्हें पूरे देश ने 1970 के दशक में तब जाना जब उन्होंने रेल कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल का नेतृत्व किया. वे ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फ़ेडरेशन के अध्यक्ष थे और उनके आह्वान पर 1974 में रेलवे के 15 लाख कर्मचारी हड़ताल पर चले गए. रेलवे की हड़ताल से पूरा देश थम सा गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जून 1975 में इमरजेंसी की घोषणा कर दी तो जॉर्ज इंदिरा हटाओ लहर के एक नायक बनकर उभरे. इस दौरान वह अंडरग्राउंड हो गए थे. ठीक एक वर्ष बाद उन्हें मशहूर बड़ौदा डाइनामाइट केस के अभियुक्त के रूप में गिरफ्तार कर लिया गया.
बड़ौदा डायनामाइट केस:
आपातकाल के दौरान गुजरात इंदिरा विरोधियों के लिए सबसे सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था. यहां उस समय जनता फ्रंट की सरकार थी और बाबू भाई पटेल यहां के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. जुलाई 1975 में फरारी के दौरान जॉर्ज बड़ौदा पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात दो लोगों से हुई पहले कीर्ति भट्ट से हुई जो उस समय बड़ौदा यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष हुआ करते थे. दूसरे थे टाइम्स ऑफ इंडिया के स्टाफ रिपोर्टर विक्रम राव. यहां यह तय हुआ कि आपातकाल की फासीवादी सरकार के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध से कुछ नहीं होगा, हिंसक प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार करने का वक्त आ गया है.
विक्रम राव के जरिए जॉर्ज की मुलाकात विरेन जे. शाह से हुई. वो स्थानीय कारोबारी थे. उन्होंने ने वायदा किया किया कि वो डायनामाइट की व्यवस्था करवा देंगे. योजना यह थी कि इंदिरा गांधी की सभा के दौरान पास ही की सरकारी इमारत के टॉयलेट में धमाका किया जाए और अफरातफरी का माहौल बनाया जाए. इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण भाग था कि किसी भी आदमी की जान इस धमाके में नहीं जानी चाहिए.
फरारी के दौरान ही जॉर्ज पटना पहुंचे. यहां बिहार के नॉन गजेटेड कर्मचारी यूनियन के तत्कालीन अध्यक्ष रेंवतीकांत सिंहा के घर रुके हुए थे. जल्द ही पुलिस को उनके आने की सूचना मिल गई. पुलिस जब पहुंची तो जॉर्ज तो नहीं मिले लेकिन रेंवतीकांत को पकड़ लिया गया. उन्होंने पुलिस को बता दिया कि जॉर्ज जब आए थे तो अपने साथ डायनामाइट की पेटी लेकर आए थे. वो पेटी अब उनके घर में गड़ी हुई है.
जॉर्ज और उनके साथियों की इस घटना का भांडाफोड़ हो गया. कुल पच्चीस आदमी इस केस में आरोपी बनाए गए. सीबीआई ने इस मामले को अपने हाथ में ले लिया. रेंवतीकांत समाजवादियों के बीच अछूत हो गए और इसी अवसाद में चल बसे.
जब जॉर्ज को बड़ौदा डायनामाइट केस की पेशी के दौरान तीस हजारी कोर्ट में पेश किया गया तो भारी सुरक्षा का इंतजाम था. लगभग 200 पुलिस के जवान उस वैन को घेरे हुए थे जिसमें जॉर्ज को तिहाड़ से तीस हजारी कोर्ट ले जाया जा रहा था. यह तस्वीर उनकी पहली पेशी के दौरान ली गई थी.
जब जॉर्ज को तीस हजारी कोर्ट में उनकी पेशी हो रही थी तो जेएनयू और डीयू के छात्र कोर्ट परिसर के बाहर खड़ी थी. नारे लगाए जा रहे थे, “जेल के दरवाजे तोड़ दो, जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ दो.” कॉमरेड जॉर्ज को लाल सलाम.” यहां से जॉर्ज नौजवानों के लिए विद्रोह का आइकॉन बन गए.
‘जॉर्ज द जायंट किलर’
1967 के लोकसभा चुनावों में वे उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एसके पाटिल के सामने मैदान में उतरे. बॉम्बे साउथ की इस सीट से जब उन्होंने पाटिल को हराया तो लोग उन्हें ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ भी कहने लगे. इस समय तक जॉर्ज युवा मज़दूर नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे. इसके बाद राजनीति के क्षेत्र में यह काफी तेजी से सीढ़ियां चढ़ने लगे थे.
वे मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में संचार मंत्री के तौर पर शामिल हुए और कुछ महीनों बाद उन्हें उद्योग मंत्री बना दिया गया. उद्योग मंत्री रहते उन्होंने निवेश नियमों के उल्लंघन के चलते आईबीएम और कोका कोला को भारत छोड़ने का आदेश दिया था. 1990 में वीपी सिंह के मंत्रिमंडल में उन्हें रेल मंत्री बनाया गया. कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट में उनकी प्रमुख भूमिका मानी जाती है.
जॉर्ज फर्नांडिस ने 1994 में जनता दल छोड़कर समता पार्टी का गठन कर लिया था. 1995 में भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया.इसके बाद फिर 1999 में एक बार और जनता दल का विभाजन हो गया. इस दौरान कुछ नेता जॉर्ज फर्नांडिस की समता पार्टी के साथ मिल गए और पार्टी का नाम जनता दल (यूनाइटेड) रखा. वहीं बाकी बचे नेताओं ने एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल (सेक्युलर) का गठन किया.
जॉर्ज फर्नांडिस ने एनडीए के शासन काल में 1998 से 2004 तक रक्षा मंत्री का पद संभाला था. पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध और पोखरण में न्यूक्लियर टेस्ट के दौरान फर्नांडिस ही रक्षा मंत्री थे. जॉर्ज फ़र्नांडीस को तहलका मामले के सामने आने के बाद रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
जया का जॉर्ज की जिंदगी में प्रवेश:
जॉर्ज जिन दिनों अल्जीमर की गिरफ्त में आ गए थे, उन दिनों उन्हें अपनी महिला मित्र की शायद सबसे ज्यादा जरुरत थी, पर दिल्ली हाई कोर्ट ने जया जेटली को जॉर्ज से मिलने पर रोक लगा दी थी. तब तक दोनों का साथ 26 वर्षों का हो चुका था, और दोनों ने कभी अपने रिश्ते को छुपाया नहीं, बल्कि पूरी ईमानदारी से रिश्ते को जिया.
जया जेटली का जन्म 14 जून 1942 को शिमला में हुआ था. उनके पिता केरल से थे और जापान में भारत के पहले राजदूत थे. अपने पिता के साथ वे जापान और बर्मा में रहीं। जब वे महज 13 साल की थीं, तो उनके पिता की मौत हो गयी. फिर वे अपनी मां के साथ दिल्ली लौट आयीं. कॉलेज में रहते हुए वे अशोक जेटली से मिलीं. दोनों ने 1965 में शादी कर ली. जया जॉर्ज फर्नांडिस से 1970 के दशक में मिलीं, जब जॉर्ज जनता पार्टी सरकार में मंत्री हुआ करते थे और अशोक जेटली उनके साथ काम किया करते थे. जॉर्ज की सलाह पर उन्होंने सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन ज्वाइन कर लिया. 1984 में वे बाकायदा राजनीति में आ गयीं और जनता पार्टी में शामिल हो गयीं. आगे चलकर जनता दल में टूट के बाद जॉर्ज और जया ने समता पार्टी की नींव रखी. आगे चलकर अशोक जेटली और जया के बीच तलाक हो गया, पर जया और जॉर्ज ने एक दूसरे का साथ निभाया और कभी अपने रिश्ते को छुपाया नहीं. तहलका के ऑपरेशन वेस्ट एन्ड के बाद, जिसमे उन्हें दो लाख किकबैक लेते हुए दिखाया गया, समता पार्टी और साथ ही एक्टिव पॉलिटिक्स से इस्तीफा दे दिया. जब जॉर्ज की जिंदगी में लैला वापस आयीं, तो उनके जॉर्ज से मिलने पर रोक लगा दी गयी. ये जया के लिए बेहद तकलीफ के वर्ष थे.
जॉर्ज के साथ अपने वक़्त को याद करते हुए जया कहती हैं, इस रिश्ते के लिए लोगों ने हर तरह की गालियाँ मुझे दी. मै जब भी जॉर्ज के पास इस बात की शिकायत लेकर जाती थी, तो वे कहते थे मै नहीं सुनना चाहता लोग क्या कहते हैं. राजनीति फूलों की सेज नहीं है, और न कोई फूलों की सेज तैयार करके देगा. जॉर्ज साहब ने हमेशा जया जेटली को कहा, अगर तुम इन तानों को सुन नहीं सकती, तुम जाने के लिए स्वतंत्र हो.
मगर जया ने जॉर्ज का साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने राजनीति में कभी अपनी महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई, न चुनाव लड़ा, बल्कि अपना पूरा जीवन जॉर्ज के सहयोगी और विश्वासी की तरह बिताया. उन्होंने जॉर्ज की हमेशा तारीफ़ की, उनके वसूलों के लिए, आम आदमी से जुड़े मुद्दों के लिए संघर्ष के लिए.
जया जेटली ने अपनी किताब “Life Among the Scorpions” में नीतीश कुमार पर जॉर्ज फर्नांडिस के साथ व्यवहार के मुद्दे पर कड़ी आलोचना की है.
जिस आदमी के लिए जया ने अपने जीवन के 26 साल दिए, और सार्वजनिक जीवन में लांछन झेला, उस आदमी के ख़राब स्वास्थ्य के दिनों में उससे मिलने से मना कर दिया गया. इसकी पीड़ा वे किसी से कह नहीं सकती थीं.
अब जबकि जॉर्ज नहीं रहे, और जया 76 साल की अवस्था में जीवन की संध्या में आ गयी हैं, ऐसे में उनके पास जॉर्ज की यादें हैं, जिनके साथ वे अपना जीवन काट रही हैं. इसके साथ खुद को व्यस्त रखने के लिए अन्य रुचियों जैसे हेंडीक्राफ्ट आदि में खुद को व्यस्त कर लिया है.
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