मखदूम मुहिउद्दीन में बारुद की गंध के साथ साथ चमेली की सुगंध भी थी
Er S D Ojha
मखदूम मुहिउद्दीन क्रांतिकारी शायर थे । उन्होंने हैदराबाद के निजाम का पाकिस्तान में विलय का विरोध किया था । जब निजाम ने भारत में विलय कर लिया तब भी वे उनका विरोध हीं करते रहे । उन दिनों निजाम की प्रशस्ति में एक तराना गाया जाता था । मखदूम ने उस तराने के विरोध में एक शे’र लिखा जो कि बहुत हीं प्रसिद्ध हुआ । अब जब भी निजाम के लिए वह तराना गाया जाता , लोग हंसने लगते थे । यह मखदूम के उस शे’र का कमाल था । बात निजाम के कान तक पहुँची । निजाम ने उस तराने के गायन को हमेशा के लिए रद्द कर दिया । आजादी के बाद मखदूम पांच साल तक हैदराबाद के विधान सभा के सदस्य रहे थे ।
मखदूम मुहिउद्दीन रोमानी शायर भी थे । उनके लिखीं नज्में फिल्मों में भी गाई गई-“एक चमेली के मड़वे तले” और “फिर छिड़ी रात बात फूलों की ” । सईद विन मुहम्मद एक जाने माने चित्रकार थे । एक बार वे अपनी रौ में कह उठे थे – मैं उर्दू की पूरी पोयट्री अपने चित्रों में उकेर सकता हूँ । मखदूम ने इस चैलेंज को स्वीकार किया । उन्होंने सईद को एक मिसरा दिया – पंखड़ी गुलाब की सी है । सईद विन मुहम्मद ने तुरंत एक गुलाब की टहनी बना कर रख दी । मखदूम मुहिउद्दीन ने पूछा – इसमें “सी” कहाँ है ? सईद ने कहा “सी” भी बनाने की कोई चीज है ? मखदूम ने कहा -” सी “तो बनाना पड़ेगा , यही तो मिसरे की जान है । सईद विन मुहम्मद को वहाँ से भागना पड़ा था ।
जब मखदूम मुहिउद्दीन चुनाव लड़ रहे थे तो उनके शागिर्दों ने उनके हीं एक शे’र में एक जगह तब्दीली कर दी और उसे हीं गा गाकर लोगों से मुहिउद्दीन साहब के लिए वोट मांगने लगे । मूल शे’र यूं था –
हयात ले के चलो , कायनात ले के चलो ।
चलो तो जमाने को अपने साथ ले के चलो ।
यहां पर जमाने की जगह जनाने कर दिया गया । अर्थात् जो भी वोट देने आए अपनी औरत को भी साथ लेकर आए । दोनों मियाँ बीवी एक साथ वोट दें । मखदूम मुहिउद्दीन बहुत वोटों के अंतर से जीते थे ।
एक बार मखदूम मुहिउद्दीन साहब की एक गजल साया हुई थी । उन्होंने अपने दोस्त मेहदी साहब को उस गजल को सुनाने के लिए बुलाया । मेहदी साहब नियत समय पर पहुँच गये । मखदूम साहब को उसी अखबार में फैज साहब की भी एक गजल नजर आ गयी । फिर क्या था । मखदूम साहब ने आनन फानन में उस गजल की धुन बनाई और मेहदी साहब को गा गा कर सुनाने लगे । फैज अहमद फैज की गजल की शुरुआती पंक्तियाँ इस तरह से थीं –
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम हीं तो है ।
लम्बी है गम की शाम , मगर शाम ही तो है ।
जब मखदूम पूरी गजल सुना चुके तो मेहदी साहब ने याद दिलाया -आपने अपनी गजल सुनाने के लिए मुझे बुलाया था । मखदूम बोले – असली गजल तो फैज की थी , जिसे मैंने आपको अभी अभी सुनाई है । इसके आगे मेरी यह गजल फीकी है ।
25 अगस्त 1969 को जब मखदूम मुहिउद्दीन साहब का इंतकाल हुआ तो हजारों लोगों ने उनकी मय्यत में शिरकत की । लोग दहाड़ें मारकर रो रहे थे ।
इक शख्स था , जमाना था कि दीवाना बना ।
इक अफसाना था , अफसाने से अफसाना बना ।
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