बिहार विधान सभा चुनाव 2020 में ओवैसी क्या भूमिका निभाने जा रहे हैं?
Balendushekhar Mangalmurty
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के लिए एनडीए और महागठबंधन के परे एक तीसरा मोर्चा खुल गया है, जिसके अगुआ हैदराबाद के लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी और महागठबंधन से निकल आये उपेंद्र कुशवाहा हैं. ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट नाम से बने इस तीसरे मोर्चे में उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा के अलावा असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), समाजवादी दल डेमोक्रेटिक और जनतांत्रिक पार्टी सोशलिस्ट शामिल हैं. रालोसपा अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा को इस गठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया है. इस फ्रंट के संयोजक देवेंद्र यादव होंगे।
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने अपने 42 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी है. एआईएमआईएम ने जिन दो सीटों पर अपने उम्मीदवारों का ऐलान किया है उनमें गुरुआ और शेरघाटी हैं. गुरुआ से एआईएमआईएम ने कौशल्या देवी मांझी को तो वहीं शेरघाटी से मसरूर आलम को अपना उम्मीदवार बनाया है.
Inshallah, in the first phase of Bihar elections @aimim_national will be fielding 2 candidates:
1. Kaushila Devi Manjhi from
Gurua (224) Constituency
2. Masroor Alam from
Sherghati (225)Your vote for Majlis will be a vote for your self-respect, dignity & security
— Asaduddin Owaisi (@asadowaisi) October 9, 2020
बिहार की राजनीति में मुसलामानों का अच्छा ख़ासा दखल है. आज़ादी के बाद से कांग्रेस को समर्थन करते आये इस वर्ग का 1989 के भागलपुर दंगे और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस में राज्य और केंद्र सरकारों की निष्क्रियता के चलते कांग्रेस से मोह भंग हुआ और बिहार में यह राजद के साथ मज़बूती के साथ खड़ा हुआ. लालू प्रसाद और राबड़ी यादव के लगातार 15 साल बिहार की सत्ता में रहने में मुसलमान समुदाय और माय समीकरण ( मुस्लिम और यादव का गठजोड़) ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी. फिर नीतीश कुमार ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग से इस समीकरण में सेंध लगाने का प्रयास किया. एक तरह रामबिलास पासवान के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए महादलित जातियों का कांसेप्ट दिया, वहीँ दूसरी ओर मुसलमानों ने पसमांदा मुसलमानों को जदयू से जोड़ने का प्रयास किया. इसी प्रयास में अली अनवर जैसे कुछ लोगों को सांसद बनाया. नीतीश कुमार को इसका राजनीतिक फायदा हुआ. और पिछले पंद्रह सालों से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं.
अब इसी 16 प्रतिशत मुस्लिम आबादी पर ओवैसी की नज़र है. ओवैसी जानते हैं कि चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं. लालू यादव उत्तरी भारत में सेकुलरिज्म का सबसे बड़ा चेहरा हैं और उन्होंने कभी इस सिद्धांत से समझौता नहीं किया है. इस बात को मुसलमान भी बहुत अच्छे से समझते हैं. लालू यादव ने मुसलमानों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी दिया है. ऐसे में मुसलमानो के वोट को अपने पक्ष में करने की राह ओवैसी के लिए आसान नहीं होने जा रही है. ओवैसी पर मुसलमान वोटों को बाँट कर भाजपा को फायदा पहुंचाने का भी आरोप लगता रहा है.
ओवैसी कहते हैं, ”वो दिन भी आएगा जब मुसलमान को सीएम उम्मीदवार बनाएंगे. अभी तो नेतृत्व पैदा करने की ज़रूरत है. जब हमारी पार्टी के नेता जीतेंगे तो एक प्लेटफ़ॉर्म मिलेगा और यहीं से सफ़र शुरू होगा. हम वही कर रहे हैं. ग्रासरूट से हम नेतृत्व पैदा करने जा रहे हैं. बिहार में हम प्रयोग कर रहे हैं. हम सबने बैठकर अभी तय किया है कि कुशवाहा साहब सीएम कैंडिडेट होंगे.”
उत्तर भारत में अपनी पार्टी की पैंठ बनाने के लिए बेचैन ओवैसी को हालिया चुनावों में ख़ास सफलता नहीं मिली है. पिछले साल नवंबर में झारखंड में हुए विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी बुरी तरह से नाकाम रही थी. एआईएमआईएम ने झारखंड में 14 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे. इन 14 सीटों में डुमरी एकमात्र सीट थी जहां ओवैसी के उम्मीदवार को सबसे ज़्यादा 24 हज़ार 132 वोट मिले थे. डुमरी सीट पर जेएमएम के जगन्नाथ महतो को जीत मिली थी. झारखंड की कोई भी ऐसी सीट नहीं थी, जहां से जेएमएम, कांग्रेस और आरजेडी प्रत्याशी को ओवैसी की पार्टी के कारण हार का सामना करना पड़ा. झारखंड में भी मुसलमान 15 फ़ीसद हैं लेकिन ओवैसी मुसलमानों को कांग्रेस, जेएमएम और आरजेडी से अलग कर अपनी तरफ़ लाने में नाकाम रहे थे.
इस तीसरे मोर्चे के मुख्यमंत्री उम्मीदवार कुशवाहा समुदाय से आते हैं. एनडीए में सीट बंटवारे को लेकर नीतीश कुमार से विवाद होने के बाद महागठबंधन का दामन थामने वाले कुशवाहा महागठबंधन से भी निकल आये. लगातार बिहार में शिक्षा का मसला उठाने वाले कुशवाहा से जनता को शिकायत है कि उन्होंने केंद्र में राज्य शिक्षा मंत्री रहते हुए ये मांग क्यों नहीं उठायी. बसपा बिहार में लोजपा और जदयू और राजद के दलित उम्मीदवारों के होते हुए कुछ विशेष कर पाएगी, इसमें संदेह है. हाँ वोट परसेंटेज बढ़ाकर राष्ट्रीय पार्टी बने रहने की महत्वाकांक्षा होगी.
अब ऐसे में देखना है कि बिहार के सीमान्त जिलों- पूर्णिया, किशनगंज, अररिया जहाँ मुसलमानों का प्रतिशत 40 फीसदी या इससे अधिक है, में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आकुल ओवैसी क्या किंगमेकर बन पाते हैं.
बिहार इस सवाल का बेसब्री से इन्तजार कर रहा है.
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